...

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बचपन के खेल निराले
लहरों सा चलने का ढंग,
मार पीट में ना थे हम कम

शतरंज की बाजी जीत,
सामने वाले को कर देते थे दंग

गेंद को समझ दुश्मन हमारा,
ले लेते थे बदला मार वहीं उसे

अगर कभी हार जाते किसी से ,
तो गुब्बारे सा फूल जाता चेहरा हमारा

फिर बनाते रणनीति हम बड़ी बड़ी,
ताकि अगली बार ना रह जाए कसर कमी

पर मन ने कभी ना खेला खेल
और बना कर रखा सब में मेल

भले रूठने का सिलसिला था
पर मनाने वाला भी वही खड़ा था,

और विचारों में थी सच्चाई,
संग गैरों से भी था हमें अपनापन

उन खेलों ने हमें बहुत कुछ सिखाया,
पर हमारे समझ में ये सब अब आया ।


smriti Trivedy
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