...

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कौन हूं मैं..!!!
कौन हूं मैं क्या वजूद है मेरा, जानने की किसे लगी है,
नहीं हूं जो किसे पता, जो हूं उसकी भी किसे पड़ी है।

होश हूं, बेहोश हूं खुद में, फिक्र नहीं अब कोई है,
जैसी भी हूं, हां में ही हूं, हरसतें अब कई कई हैं।

लिखावट में शोर, बोलियों से कमजोर, देह है मेरी,
भर भर के मन का लिखने को, ज़िन्दगी पड़ी है।

सर्दियों में गर्म, गर्म में सर्द सी, रूत शायद नई है,
सुलझाने को आप को ही, उलझने भरी हुई हैं।

लिख लिख कर तोड़ देने को, कलम अब भी,
भर कर रखी मैंने, हज़ारों स्याही कहीं हैं।

पहचानने को खुद को, बे - गैर बनकर झूलती सामने,
मेरी ही परछाइयां काली, धुंधली, घेरे मुझे खड़ी हैं।

फ़र्क क्यों पड़े किसी को, श्वेता के मन में किसकी छवि है,
कौन है वो आशिक़, दिलचस्पी जानने की मुझे आप नहीं है।

ढूंढ रही हूं वजूद खुद का, सामने मेरे दीवार बड़ी है,
रो कर बहुत कर लिया बर्बाद, अब कुछ करने की घड़ी है।

मिल जाऊंगी खुद से, जैसे दर्पण में, अपने मुख से,
बस थोड़ा और, यही सोच सोच ज़िन्दगी कटती अब नहीं है।

हाल ये है, भुला चुकी हूं, ज़िन्दगी के कुछ पन्ने,
उन्हें समेटने की हिम्मत, अब मुझमें हरगिज़ नहीं है।

इस कद्र हो चुकी हूं, मलंग खुद में, मतलब किसी से नहीं है,
खोकर भी पा लिया है, सब कुछ, जैसे जिंदगी नई मिली है।