...

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सुकून की चाह
#घरवापसीकविता

किताब के आखिरी पन्ने पर बने
वो दिन गिनते कैलेंडर
मेरी बेताबी का सबूत है
कि उस सुकून से मेरी मुलाकात कब हो
कब मैं अपने घर जा पाऊं
मेरे घरवालों से जी भर बात कब हो।

एक निवाला नहीं खाया जाता
जिस दिन वो घड़ी आती है
बस के इंतजार में सांस अटक जाती है
कि चैन मिलता है अपने गांव में पहुंचते ही
भाई इंतजार में खड़ा रहता है हमारे
मां दरवाजे पर नज़र डालें रखती है।

बस से जो उतरते हैं गांव वाले हालचाल पूछने लगता हैं
हम घर पहुंचने की जल्दी में उन्हें एक शब्द में उत्तर देते हैं
चौखट पर पहुंचते ही मां को आवाज़ लगाना तो हमारी पुरानी आदत है
और मां का ' चल हाथ मुंह धो मैं खाना लगाती हूं '
सब थकान बस यहीं चूर हो जाता है
जब पेट में मां का बनाया खाना जाता है ।

इन यादों के सहारे ही दिन गुजरते है
छोटी छुट्टियों को हम नकारते हैं
कि बाद में सुकून के लंबे पल गुज़र सके
घर वापसी की चाह लिए
बेसब्री से इंतजार रहता है अपने सुकून का।

© Rishali