...

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----मुझमें भी इक जंगल है-----
जंगल में उग आए बेतरतीब से घने पेड़ों की तरह,
उग आते हैं हर पल नये विचार मन में।

तर्कों की पगडंडियों से होते हुए,
पूर्वाग्रहों से स्थापित मानकों,
का अनुसरण करते हुए,
जब विचार निकलते हैं सुदूर भ्रमण पे,
तो भटक जाते हैं राहें,
बड़ा मुश्किल होता है उचित-अनुचित,
नैतिक-अनैतिक को तय करना।

अनुभव के कुछ पेड़ बबूल के हैं,
तो कुछ संदल हैं।
कहीं भावनाओं की जमीं ठोस है,
तो कहीं दलदल है।

कभी-कभी धधक उठता है,
विचारों का ये जंगल,
अपमान की अग्नि से।
तो कभी हो जाता है हरा-भरा,
किसी अपने के प्यार रूपी बारिश में।
कभी वक़्त की पतझड़ में,
शून्य हो जाते हैं ये।
तो आती हैं बहारें भी कभी,
जब विचारों के परिणाम,
उम्मीद पे उतरते हैं खरे।

बदलते रहते हैं विचार मेरे पल-पल,
मौसम के अनुरूप।
अपने वजूद को कायम रखने को,
करना पड़ता है संघर्ष इन्हें,
अपने ही चाहने वालों से।
उनके स्वार्थ को करना होता है पोषित,
रहता हूँ सदैव उर्वरा और अवशोषित।

-राकेश अग्रवाल "साफिर"✍️
© साफ़िर