...

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#पिंजरा !!
वह आज भी लड़ रही है
उसी पैमाने से,
उस कठोर क्रूर ज़माने से!
जैसे कैद हो किसी आशियाने में
और उङना चाहती हो खुले आसमानों में।
वह कर रही है सवाल सभी से
आखिर क्यों घेर रखा है
उसको इस पिंजरे ने !
क्या क़ुसूर है उसका आखिर?
कि वह सोचती है सबके बारे मे,
और रह जाती है अकेले,
अपने ही जज़्बातों में !!
या है गुनाह उसका औरत होना?
जो मिलती है उसे ऐसी सज़ा !!

कहने को तो आज़ादी
सबको मिली है इस धरती पे,
लेकिन कठपुतलियों सी उसकी ज़िंदगी
रहती है किसी और के हाथों में !
हँसना,खेलना, चलना,बोलना
वह जिती है उन्ही के इशारों पे !
और दबी रह जाती है उसकी आवाज़
मन के ही किसी कोने में !
चलो मान लिया मैने
है ज़माना औरतों का,
पर यहाँ तो हमारी सोच ही आगे नही बढ़ती
पुरूष प्रधान समाज से !
जब भी बढ़ती है एक औरत आगे
रोक लिया जाता है उसे डरा धमका के,
और होने के बाद भी इतना सबकुछ,
हम कहते हैं पूरी दुनिया से ,
करते हैं हम स्त्री का सम्मान
पूरी सच्ची निष्ठा से !
अरे!यह तो है एक पाखंड ज़माना
जहाँ आज़ादी एक औरत की
महज़ एक नाकामयाब कल्पना है
बस कैद हो गया है उसका जीवन
पुरूषों के बनाए इन दायरों में!
लङ रही है वह आज भी
इन्ही दायरों के पैमाने से,
इस कठोर ज़माने से,
जैसे कैद हो किसी पिंजरे में
और उङना चाहती हो
फिरसे इन खुले आसमानों में !!
© Riya gupta