...

6 views

ज़माने के दर्द
एक वक्त मैं भी लिखता था,
टूटे दिल के अनगिनत फ़साने,
जब दुनिया को देखा तो समझा,
के ग़म से जूझते रहे हैं सारे ज़माने।

दिल टूटना जुड़ना बेहद आम है,
इसे कैसे कह दूँ दर्द का पैमाना,
यहां ग़मों के अंबार लगे हुए हैं,
अपने छोटे ग़मोंं को बड़ा क्या बताना।

मैंने बिलखते लोगों को देखा है,
अपनों की याद में तरसते हुए,
किसी को दर्द से कराहते देखा है,
मौत को पल पल पुकारते हुए।

एक भूखे को इश्क से क्या लेना,
उसकी ख्वाहिश ज़रा छोटी है,
हम तो फेंक देते हैं बचा खाना,
उस ग़रीब के लिए कीमती हर रोटी है।

हम इंसानियत से भटके हुए,
कमअक्ल जानवर से हो गए हैं शायद,
किसी ग़ैर के दर्द से हमको क्या लेना,
यहां बस नफा कमाने की है कवायद।

ऐसे हालात में अपने दर्द पे क्या लिखूं,
जो भी लिखूंगा वो फ़िज़ूल सा लगेगा,
किसी के अपने की मौत के आगे,
मेरे दिमाग में पला दर्द कहाँ टिकेगा।
© Musafir