...

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ग़ज़ल
अगर तुम्हारा नहीं तो आखिर कुसूर किसका है,
तुम्हारे सिर पर चढ़ा है जो वो सुरूर किसका है।

लोग मिलते हैं पल भर के लिए,बीता वक्त बनके,
तुमने जो बसा लिया दिल में तो कुसूर किसका है।

तुम्हें मयखाना समझ कोई आया था गम भुलाने,
इश्क का तुमने जाम पिया तो कुसूर किसका है।

वो तो आया था ही बुझे दिल की ख़ाक लेकर,
तुमने जो छान ली उसमें आग तो कुसूर किसका है।

अब बेहतर है कि उसी तपिश में जलती रहो ताउम्र,
उस आग को हवा तुमने दी है,तो कुसूर किसका है।

अब तड़प तड़पकर ही सही जीना तो होगा तुम्हें,
यहां आशिकों की यही सजा है,कुसूर किसका है।

~आकांक्षा मगन “सरस्वती”

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© ~ आकांक्षा मगन “सरस्वती”