...

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रूह।
पूरी कायनात
लगी जब साथ-साथ
मंजिले-मुकद्दर लग गई हाथ
जमात-ए-रूह की
रही यह सौगात,
फिर जी लूँ कैसे
कर खुद से अलग इन रूहों को
जले जो तिल तिल
मुझ अदने रूह की खातिर
बिसरा कर अपनी औकात।।
वह दिन और वह रात
चस्पां हैं मष्तिष्क और मन पर
हर रूह सह हर सितम
वक्त...