...

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मुक्त हूं !
ध्याता ही सर्वोच्च शक्तिमान है
है अजर, यह गर्व ही अभिमान है!

भीतरी लौह क्यों ध्रुवित है?
तपोभूमि की माटी पर संकुचित है !

धैर्य का वेग जो है बढ़ रहा
निस्तभ्ध है बुद्धि, यह विवेक भी कह रहा !

आलोचना का कष्ट तुम में बस गया
क्या बाजाओं का बल इस से घट गया ?

ऊंची उड़ान लेने से मन क्यों घबराता है
दुष्ट दूषित झूठ का नाम लहराता है!

एकता में अनेक चेहरों का भाव ही समा गया
क्या मुझ में मलिन हो, तुम्हारा अस्तित्व डगमगा गया !

शंकित मन प्रबलता का परचम कैसे लहराएगा?
क्या क्षितिज ढलता सूरज, फिर से उग पाएगा !

तुम कण - कण में, रोम - रोम में जा बसे हो
इतना वेग लिए सांसों में ही बसे हो !

आज मैं सशक्त हो गई हूं
आज मैं मुक्त हो गई हूं!

© Somanshi