...

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जिंदगी
अब संभाले संभले ना कभी
बहक जाये तो अच्छा है
हर शाम के ढलते सूरज सा
ये ढ़ल जाये तो अच्छा है

कितनी चिंगारी उठती है
हर बार यहीं दुहराती है
तुम सुखे पत्तों जैसी हो
अब जल जाओ तो अच्छा है

सागर सीमटा, पर लहरें उठती
बार- बार उकसाती है
यत्न तुम्हारा कुछ भी नही
तुम हार जाओ तो अच्छा है

मै शुन्य हूँ और सार्थक हूँ
इस बात से मै अनभिज्ञ नही
पर स्वाभिमान का दामन थामकर
उसे छोड़ देना क्या अच्छा है?