...

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(नज़्म) "बे हिस हो जाना चाहता हूँ"
बे हिस हो जाना चाहता हूँ
बेज़ार अँधेरी रातों से
अब यार तिरे जज़्बातों से
नफ़रत और प्यार के चंगुल से
सब झूठ फरेबी बातों से
बे हिस हो जाना चाहता हूँ....
ये सन्नाटे तन्हा जंगल
और उड़ता हुआ तेरा आँचल
ये सर्द हवाएँ मौसम की
और तेरी आँखों का काजल
हर साज़िश और हुशियारी से
इस जाँ लेवा बीमारी से
बे हिस हो जाना चाहता हूँ.....
ये हिर्स ओ हवस ज़ेहनी लूटें
ये जीत हार के मंसूबे
ये कम- क़ामत गुमनाम बशर
दिल के काले लहजे झूठे
अब इस दुनियावी दल दल से
ज़ेहनों से ख़ाली जंगल से
बे हिस हो जाना चाहता हूँ ......
हैं गीत सभी बेसाज़ जहाँ
कुछ मोहलत की परवाज़ जहाँ
अल्फ़ाज़ किसी के होते हैं
और बिकती है आवाज़ जहाँ
ऐसी सारी आवाज़ों से
इन झूठे सच्चे राज़ों से
बे हिस हो जाना चाहता हूँ .....
वो दूर रहे दिल घबराए
कोई फूल हो जैसे मुरझाए
उनके क़दमों की आहट से
दिल शोर करे और चिल्लाए
इन छोटी छोटी आहट से
बेमतलब की घबराहट से
बे हिस हो जाना चाहता हूँ .....

शाबान नाज़िर -
© SN