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"ज़ज़ा"
"न्यौता मिला था मुझे पर मैं अटक गई,
खिंचती चली आई तुम तक ,भटक गई।
ख़ुमारी कहें या कहें उसे जुनूँ पता नहीं,
शिद्दत से चाहना किसी को ख़ता नहीं।
गाहे बगाहे हर बात ही अंदाज-ए-नायाब,
कोई कैसे न होता फ़िदा किया यूँ आदाब।
बेक़रारी बढ़ती चली गई रहने लगी मैं ग़ुम,
तुम्हीं से सुबह, शाम-ए-महफ़िल गई रम।
रेज़ा-रेज़ा थे जो अरमान आज सिमट गए,
तुमसे बहारा से मेरे ख़्वाब-ए-जीस्त हुए।
हार कर ख़ुद को तुमने मुझे ज़ज़ा किया।
क़ुबूल हुए यूँ, ताउम्र के लिए बसा लिया।।
© ©Saiyaahii🌞✒
खिंचती चली आई तुम तक ,भटक गई।
ख़ुमारी कहें या कहें उसे जुनूँ पता नहीं,
शिद्दत से चाहना किसी को ख़ता नहीं।
गाहे बगाहे हर बात ही अंदाज-ए-नायाब,
कोई कैसे न होता फ़िदा किया यूँ आदाब।
बेक़रारी बढ़ती चली गई रहने लगी मैं ग़ुम,
तुम्हीं से सुबह, शाम-ए-महफ़िल गई रम।
रेज़ा-रेज़ा थे जो अरमान आज सिमट गए,
तुमसे बहारा से मेरे ख़्वाब-ए-जीस्त हुए।
हार कर ख़ुद को तुमने मुझे ज़ज़ा किया।
क़ुबूल हुए यूँ, ताउम्र के लिए बसा लिया।।
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