...

27 views

महारथी
प्रस्तावना

कहीं है मरू कोमल, कहीं कठोर है उसका तन मन,
कहीं बहता झरना निर्झर कोमल,कहीं काटे है
विशाल मेरु सघन।
कहीं डाल पर कोयल, कहीं डाल पर मैना
गाए अपने सुमधुर संगीत, बिना किसी से लेते सीख ।
कहीं रहते मदमस्त हाथी, धरा को डोलाए
कहीं रहता शेर कानन में, डराए सबको अपने दहाड़ से ।
प्रकृति ना जाने गोत्र, जाती किसिकी
मगर पाले है सबको, बड़े प्यार से ।

सब को समान सा मानती है प्रकृति
देती है सबको समान अधिकार,
जो,जो चाहे वो करे,
ना पूछे क्या है तुझे अधिकार ।
यदि हाथी में हो सामर्थ तो
दे सकता है वनराज को चुनौती
ना पूछे उससे, कोन हो तुम जाती ।

पर इंसान ने जन्म और जाती की नीव डाल
धरा पर हलचल है मचा दी।
हर जगह है जाती और जन्म, कर्म पर भारी।
जो हिन जाती में जन्मा,उसे समाज सम्मान ना देगा,
उसे जाती की याद दिला हर पल कोसेगा।

जन्म ते कभी कभार ही वीर
समाज की अनिष्ट रितिओ से लड़ने को,
समाज से ऊपर उठ कर, कुछ कर दिखने को
एक नई नीव रख जाने को
इतिहास में सदा अमर हो जाने को ।

समाज के जन्म और जाती के
रीति की एक ना उसने मानी
जन्म जाती को धिक्कार, कर्म की मन में ठानी।
क्षत्रिय होकर सूत के घर पला था,
तेजस्वी वो सूर्य समान था,
सूर्यपुत्र होकर,सूतपुत्र वो कहलाया था।
जब भी ये मन असमंजस से जूझा था
हे कर्ण तेरे पौरुष से ही, मुझे मार्ग सूझा था।

- शुभम

This is only preface, I will be writing 4 to 5 detail poems on karna. Stay Tune ..............