...

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दोगली दुनिया
"बारिश" लफ्ज़ सुनकर अच्छा लगना है लाज़मी,
पर हकीकत खयालों से काफी अलग है,
जिसके सर के ऊपर छत नहीं होती,
उसके लिए बारिश के मायने अलग हैं।

ऊंची इमारतों के चौदहवें माले पे रहने वाले,
कहां बाढ़ में बहते लोगों का दर्द जानेंगे,
वो बारिश में रील बनाने लगते हैं,
और कुछ लोग अपनी जान बचाने लगते हैं।

किसी को चाय की चुस्की की हुड़क है,
किसी को खुशनुमा गानों की दरकार है,
किसी की रोज़ी डूब रही है,
किसी की हालत भूख से बेहाल है।

पर बारिश का क्या, उसे तो आना ही है,
वो मौसम के फरिश्तों की गुलाम है,
ये दोगलापन तो रिवाजों की मिल्कियत है,
यहां गफलत में जीना ही आम है।

जिनके पास खाने को है,
उन्हें न भूख है न भूखे को खिलाने का मन है,
जिसके सर छत है उसको भी,
किसी भीगते को आसरा देने का न कोई मन है।
© Musafir