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क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

उस पार बहुत दूर कहीं एक दीपक झिलमिलाता
कहते सब मरीचिका पर मैं दौड़ता जाता
बसने वाला नगर में मैं अकेला ही नहीं हूं
जानता हूं क्यों यह जग मुझे पागल कह जाता

औरों को दोष दे रहे, किस्मत को सब दोष दे रहे
गिला नहीं बस मैंने ही देखा खुद को उस रात आईने में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

क्यों बताऊं गम के कितने तीर कैसे झेल पाए
क्यों गिनाऊं कितनी बार मंद मंद मुस्कुराए
विलाप यह दिल अब और नहीं करना चाहे
इसी बात ने ना जाने कितने नज़्म लिखवाए

किनारे बैठ खुद को क्यों कोसूं घड़ी घड़ी में
इससे तो बेहतर है डुबकी लगाना जीवन की नदी में
क्यों बसूं सर्वदा मैं ग़म के नगर में

आंधियों से भी ना डरे वृक्षों...