...

2 views

मेरी बढ़ती खुशी


जवानी में इन झुर्रियों से जितना ज़्यादा घबराती थी मैं,
अब उन झुर्रियों का श्रृंगार मुझे उतना ही अच्छा लगता है।

बेटे का बस्ता तैयार करते करते कब दादी बन गई,
इसका जवाब इन सैकड़ो लकीरों से मिलता है।

खुद घूंघट संभालते हुए कब बहु को समझाने लगी
ये सोच मेरा मुरझाया बूढ़ा चेहरा भी खिलता है।

मेरी दादी की जगह पर जब खुद को पाया मैंने,
तब जाना थके शरीर को भी कैसे सुकून मिलता है।

पर आईने में खुद को निहारती हुई मैं आज फ़िर रो पड़ी
ये सोच कि अस्सी की उम्र में भी ये लकीरें क्यों कम है ?

मगर बुढ़ापे से पहले किए परिश्रम को जब सफल होते देखा
तो मैंने सोचा कि अभी तो जीने के लिए, सौ में से भी बीस कम हैं।


⁩Smriti Trivedy
© All Rights Reserved