...

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बचपन का घर..
#घरवापसीकविता

वो आंगन, जहाँ मैं पायल छनकाती दौड़ा करती थी,
अब सूना है, जैसे किसी गीत ने चुप्पी ओढ़ ली हो,
वो गुड़िया का घर, जिसकी ईंटें सपनों से बनी थीं,
आज भी कोने में, पर मेरी नज़रों से कहीं खो गई हो।

माँ की ममता भरी छांव, वो रसोई की मीठी खुशबू,
पिताजी के कंधे, जहाँ दुनिया से ऊँचा महसूस होता था,
सब कुछ तो वहीं है, फिर क्यों ये दिल उदास है,
शायद मैं ही बदल गई हूँ, या फिर वक़्त बहुत पास है।

वो दीवारें, जहाँ मैंने अपने नाम लिखे थे,
आज भी मेरे होने की गवाह हैं,
पर वो मासूमियत, वो हँसी का दौर,
अब कहीं पीछे छूट गया है राह में।

हर कोना, हर धुंधला खेल,
जैसे मेरे बचपन की कहानियाँ दोहराता है,
पर अब मैं उस बच्ची को ढूंढती हूँ,
जो खुले बालों में बेफिक्र दौड़ती फिरा करती थी।

घर तो वही है, पर मैं कहीं खो गई हूँ,
वो गलियां, वो छत, जो मेरी मुस्कान पहचानती थीं,
अब अजनबी लगने लगी हैं,
शायद मैं ही उनसे दूर हो गई हूँ।

लौटने पर भी, कुछ अधूरा सा लगता है,
शायद मैं वापस जा रही हूँ,
पर वो लड़की, वो बचपन,
कहीं पीछे रह गया है,
वो घर अब भी है,
पर मैं अब वैसी नहीं रही।

© Pensive Princy