...

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सिग्नल
मै रोज़ देखता था उसे, सिग्नल पर कुछ न कुछ बेचते हुए।
कभी गुब्बारे, कभी फूल, तो कभी कुछ और
पर कभी भिख मांगते हुए, नहीं देखा,
रोज़ मशक्कत कर रहा था वो, जीने की पुरजोर
मैंने उसे आॅफर भी किये कुछ पैसे,
पर उसने कहां मुझसे, "मैं भिखारी नहीं हूँ साहब"
झंकझोर दिया मुझे, उसके एक ही लफ्ज़ ने
पेशमाँ मैं भी हो गया, थोड़ा जनाब
आज़ भी ढुंढ रहा हूँ मैं, उस सिग्नल का दुसरा छोर,
ख़ुद्दारी से भरी हुई ज़िंदगी, जहाँ फैलीं हुईं है चारों ओर
_पहल