...

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गंगा
हे गंगे! हम तुम्हारे दोषी हैं ।
हम समक्ष तुम्हारे क्षमाप्रार्थी हैं माँ।
काश! की हम तुम्हे मातातुल्य न मानते।
काश! की तुम्हारा जल अमृत समान न होता
तो शायद तुम्हारी इतनी दुर्दशा न होती।

संभवत: तुम्हारा तल यूँ न ढँका होता
कचरे के अम्बारों से।
अगर हम तुम्हे भागीदार न बनाते
अपने पाप और पुण्य का,
और तुम माँ,पापकर्मनाशिनी न होती।
तुम्हारा निर्मल जल यूँ स्याह न होता
अगर ये इतना पवित्र न होता।

काश! माँ तुम्हे भागीरथ ने पुकारा ना होता
जनकल्याण को, तुम्हे धरातल पर उतारा न होता।
वेदों पुराणों में तुम्हारी महिमा का वर्णन ना होता ।
माँ, ऋषि मुनियों ने तुम्हे ध्याया ना होता ।
काश! तुम भी कोशी सा विकराल रूप धारण करती
तो शायद तुम्हारा पाट इतना संकीर्ण न होता।

काश! माँ तुम्हे देवी न जान निर्जीव समझा होता।
तुम्हारे जल को केवल जल समझा होता ।
तुम इतनी परोपकारी न होती
तो शायद हम इतने कृतघ्न न होते।
काश! माँ तुम कोई अलौकिक शक्ति नहीं
केवल एक नदी होती,
केवल एक नदी।