...

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बुलंद हौसले
सोचती हूँ जो मैं वो तुरंत मिलता नहीं,
मगर अगर मेहनत करूँ मैं
तो मंजिल मुझसे दूर नहीं।
अनजान थी खुद से, 'कौन हूँ मैं?'
होता था बस यही एक सवाल
बिना जवाब के न जाने क्यूं,
दिल रहता था यूँ ही बेकरार

जान पाना यु खुद को था कोई आसान नहीं
हार मान लूँ मैं यूँ ही ये मेरे बस का काम नहीं
परिवार और अपनों से मिली समाज की परंपराओं को जाना
हर किसी ने कहा लडकी हो तुम छोड अपनों को किसी और के घर ही हैं तुमको जाना
जिम्मेदारी हो तुम सिर्फ माँ-बाप और परिवार की लडकी की शादी करके विदा करना ही परंपरा है इस समाज की

समाज की छोड तु
सबको सब कुछ यहीं छोड़ कर एक दिन जहाँ से जाना है।

लगा एक अजीब सा सदमा, क्यूं नहीं मेरा घर अपना जन्म देने वालों को अगर छोड़ना ही हकीकत है।
हैं शादी अगर समाज की परंपरा है
तो मौत इन्सानी जीवन की बडी असलीयत है।
यदि छूटना ही है सब कुछ अपना फिर क्यूं न कुछ ऐसा कर जाऊँ बेगानी होकर भी सबकी मैं,
सबको अपना बना जाऊँ।

नहीं कर सकती अगर उन जन्म देने वालों की उम्रभर सेवा
तो क्यूं न करूँ फिर मैं पूरे समाज की सेवा
हूँ अगर परायी मैं अपने जन्मदाताओं की
तो नही जरूरत है मुझे फिर समाज के परंपराओं की दुहाई की।।

समाज की पुरानी लकीर की
फकीर मैं ना बन पाऊंगी
तोड समाज की जंजीरों को
मैं अपनी अलग पहचान बनाऊँगी।
दूर कर दे जो अपनों से
ऐसी खोखली परंपरा मुझे मंजूर नहीं
तोड दे मेरे बुलंद हौसलों को
अब इन झूठी रस्मों में इतना दम नहीं।

रोहिणी तिवारी

© Rohini Tiwari
#buland #housla #beti