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आँखें
आँखें

पलकों के पिछे
रहती येआँखें हैं
ज़नाब
इनमें समदंर से
गहराई हैं
बादलों सी नमी हैं
कुछ अजीब सी
कोई अज़नबी सी
कोई भुरे हैं
कोई काले, निले भी
बेजुबान जुबाँ की
दास्ताँ बताती ये
बिना लफ्ज़ के
हकीकत बयाँ करती
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