...

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ग़ज़ल
शाख़-ए-दिल देखिए फिर हरी हो गई
आज ख़त्म उस की नाराज़गी हो गई

एक जंगल के बाद एक जंगल मिला
इक मुसीबत के बाद इक खड़ी हो गई

सब से मिलते हुए हाथ उन से मिला
हाथ के साथ कुछ बात भी हो गई

उस के होंठों से प्यासा पलटना पड़ा
ख़त्म दरिया की दरिया-दिली हो गई

हर समय आप का ज़िक्र करने की लत
ये मुहब्बत है तो फिर बड़ी हो गई

एक दिन नब्ज़ ने कुछ इशारा किया
ख़ुद-ब-ख़ुद बंद मेरी घड़ी हो गई

ढल गए ग़म सभी शाइरी में मेरे
जितनी कालिख थी सब रौशनी हो गई

© Rehan Mirza

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