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लगता हैं
हक़ीक़त में रहना ही अच्छा हैं,ख्यालों में गुम होने से डर लगता हैं,
मोहल्लेदारी हैं पर कोई पूछता नहीं,दूर कहीं जंगल में बसा अपना घर लगता हैं,
हाथों ने मेरे कलम क्या उठाई,उसे मोहब्बत भी शायरी का किस्सा भर लगता हैं,
बट जाते हैं लोग धर्मों में ईद दिवाली आते आते,राजनीति की मेहनत का असर लगता हैं,
नफ़रत ने सबको इतना अंधा कर दिया कि रेत भी अब तो ज़र लगता हैं,
दिल ना हुआ, कोई टेलीफोन हो गया इधर मिलता नहीं,बस उधर लगता हैं,
मज्मा' तो बड़ा जमा लिया उसने, झूठ बोलने की हद से गया वो गुज़र लगता हैं,
सबको पड़ी हैं अपनी अपनी,कर्मभूमि पर ज़िम्मेदारी का सूख गया शज़र लगता हैं,
कोई सिर ना उठाये ज़ुल्म के खिलाफ़, उजड़ गया पूरा शहर लगता हैं,
हो के शायर हमेशा ही कड़वा लिखे, पिया 'ताज' ने भी कोई ज़हर लगता हैं।
© taj
मोहल्लेदारी हैं पर कोई पूछता नहीं,दूर कहीं जंगल में बसा अपना घर लगता हैं,
हाथों ने मेरे कलम क्या उठाई,उसे मोहब्बत भी शायरी का किस्सा भर लगता हैं,
बट जाते हैं लोग धर्मों में ईद दिवाली आते आते,राजनीति की मेहनत का असर लगता हैं,
नफ़रत ने सबको इतना अंधा कर दिया कि रेत भी अब तो ज़र लगता हैं,
दिल ना हुआ, कोई टेलीफोन हो गया इधर मिलता नहीं,बस उधर लगता हैं,
मज्मा' तो बड़ा जमा लिया उसने, झूठ बोलने की हद से गया वो गुज़र लगता हैं,
सबको पड़ी हैं अपनी अपनी,कर्मभूमि पर ज़िम्मेदारी का सूख गया शज़र लगता हैं,
कोई सिर ना उठाये ज़ुल्म के खिलाफ़, उजड़ गया पूरा शहर लगता हैं,
हो के शायर हमेशा ही कड़वा लिखे, पिया 'ताज' ने भी कोई ज़हर लगता हैं।
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