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नारीत्व और दायित्व
सृष्टि की अनुपम रचना वह सृजनकर्ता नारी है
शब्द जिसमें समाया उभय नर और नारी है।

कहते हैं नारी सरल नारी कोमल, सहनशील है
वक्त पड़े तो बन जाती है सब पर भारी है।

बचपन में पकड़ाए जाते गुड्डे गुडिया हाथों में
वहीं हाथ आगे बढ़ते परवरिश में छोटे भाई बहनों के।

मां संग झट काम निपटाती बीच पढ़ाई छोड़कर
पिता के कंधे से थैला उतारती सड़क पर दौड़ कर।

गुल्लक में वह बचत करती पाई पाई जोड़कर
बिना शिकायत तोड़ भी देती उदास पिता को देखकर।

अपनी इच्छा का गला घोंटती जब बात विवाह का हो
हंसते मुस्कुराते नम आंखों से सब सह लेती घूंट खून का पीकर वह।

नये रिश्ते में बंध कर बेटी से बन जाती बहु
नया माहौल अंजान सफर तय करने चली वह।

जीवन साथी के हर उलझन को वह सुलझाती हर मोड़ पर
वक्त पड़े तो भूमिका पिता का निभाती सीने में पत्थर रख कर।

सिर पर पल्ला, आंचल में छल्ला लक्ष्मण रेखा से वह बंधी
सिल लेती ओंठो को दिवाली पार न बात जाने देती।

कब ममत्व का जिम्मेदारी से जीवन में नया मोड़ आया
खुद के अस्तित्व को भूल हर कदम पर चुनौती पाया।

जाने कैसे बीत चली जीवन की ये लंबे सफर
दायित्व निभाया बखुबी से बिना किसी शिकवा शिकायत।

नारीत्व का पर्याय दायित्व इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं
प्रकृति का श्रृंगार नारी से है, प्रभु को भी इससे इंकार नहीं।

रीता