...

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मौन
मौन चुनना
ज्यादा कठिन है,
शब्दों को चुनने से..!

शब्दों का चयन
आसान कर देता है,
हमारा ठीक उतना ही पहुंचना,
जितना हम खुद से चले थे..
मौन ठीक उतना ही पहुंचे
दूसरे छोर तक,
यह प्रायः संभव नहीं होता..
ख़ुद का, गंतव्य तक,
पूरा न पहुंच पाने का जोखिम,
बहुत बड़ा होता है..

यूं नाप तोलकर पहुंच पाना,
मौन की नियति में कहां..
अनंत आकाश की नियति में
जैसे नियत परिधि नहीं,
जिसने जहां से जितना देखा,
उतना जान लिया
उतना मान लिया..
इस धरती के समक्ष,
खुद को पूर्ण व्यक्त कर पाना
आकाश के हिस्से कहां..

मौन चुनना,
क्षितिज चुनने की भांति है..
हिस्से में ना मिलन आता है
ना ही बिछोह,
वक्त बहुत आगे बढ़ चुका होता है,
हमारे उस छोर तक
पहुंचने से पहले ही..
छोर उलट जाता है, हर बार,
'इस ओर' कब 'उस ओर' बन जाता है,
पता ही नहीं चलता..

धर्म से लेकर कर्म तक,
अमूर्त को चुन पाना
हमेशा से ही कठिन रहा है..
जैसे हजारों लाखों को छोड़ कर,
शून्य को चुनना..
जब अनंत और शून्य में
कोई अंतर ना हो,
ना प्रारंभ नियत हो,
ना प्रारब्ध..

शून्य को बुनने की तरह,
मौन बुनना
ज्यादा कठिन है,
शब्दों को बुनने से..।।


© आद्या