...

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Poem: मर जाऊँ मैं ...
तो क्या हो अगर मर जाऊँ मैं
न कुछ कहूँ सुनूँ किसी से
और पत्थर सी कठोर हो जाऊँ मैं

कौन आएगा कोई नहीं आएगा
दिल के टूटे टुकड़ों को उठाने
तो क्या हो अगर अपने इस दिल को
अपने ही पैरों तले कुचल जाऊँ
और मर जाऊँ मैं ...

किसको फर्क पड़ता है किसी से
इन आँसुओं का क्या है
ना कोई दीन धरम है इनका
ना कोई जाति पाती है इनकी
ये हर बात पर आँखों से
बरस जाएंगे और बरसते जाएंगे
तो क्या हो अगर इन आँखों को
आज अभी यहीं फोड़ दूँ मैं
न कुछ देखूँ न दिखाऊँ
और मर जाऊँ मैं ...

अपना कभी अपना नहीं होता
वो सबसे ज्यादा बेगाना होता है
वो सबसे पहले दिल दुखता है
वो सबसे पहले नीचे गिराता है
वो सबसे पहले मुकर जाता है
वो सबसे पहले ग़ैर बताता है
तो क्या हो अगर आज से अपने अपने
की ये गंदी रत लगाना छोड़ दूँ मैं
ना किसी को बुलाऊँ ना किसी के पास जाऊँ
और मर जाऊँ मैं ...

सबको अफसोस है मेरे होने पर
हाँ, सब में मेरा भी नाम है
तो क्या हो अगर सबकी सुन लूँ
और सबको ही अलविदा कह जाऊँ मैं
न किसी को कुछ बताऊँ न पूछूँ
और बस मर जाऊँ मैं ...

सबके सीने का बोझ उतार जाऊँ
सबकी मुश्किलें आसान कर जाऊँ
सबकी बद्दुआओं का मोल रखूँ
सबकी नफ़रतों का मोल रखूँ
इन श्वासों की गति को रोक दूँ
और आज अभी इसी लम्हात में
मर जाऊँ मैं ...

मैं करुँगी ऊपर वाले का शुक्रिया
वापस धरती पर ना आकार
अगर अभी मर जाऊँ मैं ...
© Pooja Gaur