...

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मोबाइल
यह कविता मेरी दादी ने आज बनाई।
वो 80 वर्ष की हैं।
इससे पहले कि वो भूल जातीं, उन्होने मुझे आकर अपने शब्द सुनाए और कहा कि इसे तू अच्छे से लिख ले।
तो ये कविता मेरी दादी की कही पंक्ति्‍यों में थोड़ी फेर बदल कर लिखी है।
भाव वही हैं।


पहले उठने के आलस पर भी बच्चे उठ जाते थे
किताबों में उलझे, फिर शाम को दौड़ लगाते थे,
अब सुबह उठते ही मोबाइल लेके बैठ जाते हैं
इधर उधर कुछ नहीं, दोस्त भी स्क्रीन पर ही आते हैं।

पहले माँ बाप की डांट से दादा-दादी बचाते थे
उनके पुराने किस्से कहानी सुनने बच्चे दौड़े चले आते थे,
पर अब पास बुलाओ तो दूर भाग जाते हैं
तो बूढ़े भी मोबाइल पर अब उँगलियाँ घुमाते हैं।

पहले बच्चों के साथ ठहाके लगाते थे
डांट प्यार के घोल से सौ चीज़ें सिखाते थे,
अब ज़रा भी टोको तो वो गुस्सा दिखाते हैं
इसलिए माँ बाप खुद भी अब मोबाइल में मस्त हो जाते हैं।

बच्चों का दोस्त बन गया,
माँ - बाप के लिए मज़ा
बुज़ुर्गों का सहारा;
ये मोबाइल साथी है या सज़ा?
© bani745+Kailash Kanta Panta