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माना जीवन इक पतझड़ सा है मेरा तुम उसमें हरी पत्तियाँ सजाओगी क्या
माना जीवन इक पतझड़ सा है मेरा तुम उसमें हरी पत्तियाँ सजाओगी क्या
जब मैं जाऊँगा कुछ कमाने तो तुम टिफिन मेरा पहुँचाओगी क्या
जब मैं घर आऊँगा वापस तो तुम डिनर मेरा बनाओगी क्या
जब रहूँगा मैं किसी मुसीबत में तो साथ खड़े होकर मेरे हौसला मेरा बढाओगी क्या
जब तनख्वाह मेरी आएगी तो उसपर तुम भी हक जताओगी क्या
ग़र बात न मानू तुम्हारी तो मुझसे रूठ जाओगी क्या
कुछ ना कहूँ सीधे तुमसे फिर भी बातें समझ जाओगी क्या
माना जीवन पतझड़ सा है..........
होती बातें यही सभी की इक दूसरे से पहले क्या
इक के जाने के दूसरे से दिल यूँ ही लगता है क्या
ऐसे दिल किन्हीं मूल्यों पर बाजारों में बिकते हैं क्या
अगर कोई भी इन्हें खरीदें पैसे से उसके पास ये टिकते हैं क्या
माना कि जीवन इक पतझड़ है.......
अगर कोई चाहे किसीको तो बातों का जवाब देने से नकरते हैं क्या
कोई कुछ किसी को पूछता रहे, उससे भी कभी कुछ पूछते हैं क्या
कटे-फटे दिलों में कुछ प्रेम के मरहम भरते हैं क्या
लोग ऐसे ही एक दूसरे से बातें करते हैं क्या
जब मन नहीं लगता किसी से तो आशिकों को बदलते हैं क्या
हर घर में मेरी तरह के आशिक मिलते हैं क्या
लोग सर्वस्व न्योछावर करनेवालों को उल्लू समझते हैं क्या
लोग ऐसे ही इक दूसरों से बातें करते हैं क्या
ऐसे लोगों की नाव किनारे पर निकलती है क्या
जिंदगी में इन्हें खुशी और समृद्धि मिलती है क्या
उस अभागे आशिक की इन्हें बद्दुआएं लगती हैं क्या
हर वक्त सतानेवाली पश्चाताप की घड़ी इन्हें सताती है क्या
लोग ऐसे ही इक दूसरे से बातें करते हैं क्या
प्यार को ये लोग हमेशा से मजाक का व्यापार समझते हैं क्या
ये भी किसी और पर जी जान से मरते हैं क्या
भगवान हम जैसे अभागों की सुनते हैं क्या
इन धोखेबाजों से प्रिय चीजों को छीन लेते हैं क्या
देखना है रोनेवाले आशिकों को इंसाफ देते हैं क्या
लोग ऐसे ही इक दूसरे से बातें करते हैं क्या


© Phoenix