...

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तृष्णा ही तृप्ति
जब तुझे चाहती हूँ
तो डरने लगती हूँ
तुझे खोने से
फिर खुद को सहेज कर
कुछ रसगुल्ले सा मीठा बोल कर
प्रेम करती हूं खुद से
औऱ फिर निकल जाती हूँ
अपने ही बुने आकाश में
दुनिया के साथ
हाथ मिला कर
रंग लेती हूँ
खुद को हँसी के
झूठे से रंग में
औऱ एक तरफ
बन जाती हूँ
मैं परी
उनके सपनों
में खोई हुई
एक बेजान सी
गुड़िया
जिसे तृप्ति से
प्रिय हैं ये तृष्णा
क्योंकि इस
तृष्णा में ही हैं तृप्ति
उनके सिर्फ मेरा होने की
औऱ उससे भी अनमोल
हैं ये प्रेम जो
उन्होंने मुझे दिया
औऱ मैंने महसूस कर लिया है
उनकी आत्मा को छू कर

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