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आ चेत जाएं
चिंतनशाला के मनुजकांत !
वर्षों का चिंतन चिंता में परिणत देखा - अब भान करो ।
इस मूक प्रथा के अंबर में कब तक वंचोगे? ज्ञान करो ।।


किंचित प्रकाश उल्लास विषय ही अंत तिमिर सुखदायी है ।
जनझंझा क्रंदन अद्य विकल निज भू शम समर ले छायी है ।
भुक्षा के शूल किशोरों में दर्शन व नृत्य विधा कैसी?
तुम अग्रज वन तप त्याग करो सूखी विधि की समिधा कैसी ?
हैं तेरे ही तन घोर विकल कुछ तो अपनापन जान करो ।
वह वृषस्कन्ध होगा अदम्य यदि तेजशिला परिधान करो ।।

बरबस सरवस तन मान तजा ऐसी सेना श्रमिकों को भी
नहि मूढ़ कंपे कर कर विपन्न उन विधवा अश्रुलतों को ही
तुम वाग्युद्ध तल्लीन वृथा  वे कर्मपथी संघर्ष- कथा
थे मान , दवा , स्वच्छन्द हवा , करुणा , शिक्षा को तरसे जी
हे , यज्ञ योजना के होता धन वर्षा का शाकल्य न कर
मघवा बन बरसा पीड़ा पर हल वारि पहुंच आसान करो ।।

सिंहासन दृष्ट उदासी की चलती बनती अविराम दिशा
भारत भू दर्शन कहता है पर प्रेम फँसा व हँसा सहसा 
रिपुदल पुनि भोग रतन वनिता आसन करता है सर्वनाश
निज बंधु वंश अवतंश मूल मिट जाता है स्तित्व आश
अब चेत विपुल सुसखा राजन् अंतिम उच्छ्वास विधान करो
बहु  काल बिता रति गर्भशयन नहि त्रास दिखा सुवितान करो।।

शक्तिस्फुलिंग संचित मनसा पा मृदु मौसम की शीतलता
अंकुर फटता व कदा न सदा दिव एक विटप उठता बनता
है उसी शक्तिसम गुप्त प्राण संधान राह अनुकूलनता
तू सूरज है गति गामी तो तेरी भीषणता या लवता
फिर क्यों रत अंध प्रमादी हो निज आप्त भविष्य निधान बनो
वर्षा पुष्पों की पा सुर से सुर संतति भारत मान करो।।

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नोट : अर्थगौरव के उद्देश्य से चिह्नविचार  आकुंचित किया गया है।


© शैलेंद्र मिश्र " शाश्वत '