...

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प्रेम यज्ञ .....

हवनकुंड की ये ,
प्रज्वलित अग्नि ....
साक्षी होगी ... बहते अश्रु की ,
प्रेम के तप सें ...
परिचय होगा ... निस्वार्थ मंत्र का !

प्रेम सुधा के .. रस का प्याला होना है ...
तुम्हारे हर स्वाहा पर ,
खुद की पूर्ण आहूति देना है ....

तन-मन आत्मा से ,
तुम्हें समर्पित हूँ ...
सिंदूर .. के तुम ...
हर क्षण साक्षी रहना !

स्वर में सम्मिलित रखना सदा ,
आशावृक्ष में भी ...
विश्वास के फल को ,
उपार्जित करना ...

प्रेम पराग को ...
अश्रु से .. विरह से ...
मिलन की अनुभूति से ...
सुशोभित रखना !

प्रतिदिन आकलन करना ,
अपने प्रेम यज्ञ का ...
प्रेम प्रखर हो पावक हो...
ऐसा तुम यज्ञ करना!

उर्मिल लहरों जैसा रखना,
प्रेम को अपने मन में...
जो भिगो दें मन की चादर...
अमृत प्रेम की बूंदों से!

परछाई सा हो प्रेम तुम्हारा,
अंतर्मन से ..रिसता रहे...
दीप जैसा .. जले सदा
ऐसा प्रेम का रिश्ता रहे!

आशाओं का ये प्रेम बंधन,
आस्था के मन से बंधा...
कभी ना टूटने वाला बंधन...
साँसों के स्पंदन से बंधा!