...

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बूँदे

बूंदे ,बरसती हुई अच्छी लगती है ,
टपकती हुई भी
कुछ ठहरी लटकती हुई भी
कुछ चमकती दमकती भी
इस धरा का चुम्बन कर
फिर क्यूँ ओझल हो जाती है बूँदें
तेरा अस्तित्व भी / ही
मेरे अन्दर प्यार उमड़ लाता है
जैसे प्यासे दिनों में
अमलतास खिल आता है
तेरे आने से ही जाने की
रीत बन आती है क्यों
कुछ और ठहर क्यूँ न जाती
तृप्ति की आस को
कुछ और क्यों न भीगा/
बुझा जाती है बूँदें ..
सुरेन्द्र बंसल
भीगी भीगी रात में
22 .50 date 22 .1 . 2014