एक डरावनी कल्पना
ये कविता मैने 2022 में विश्व जल दिवस पर लिखी थी , जव इस धरा पर पानी समाप्त हो जायेगा तब कैसा मंज़र होगा उसकी एक झलक ।
उपर वाले से प्रार्थना है के ये कल्पना कभी हक़ीक़त ना बनें ।
झुँजलाया हुआ वो थोड़ा सा
झन्नाया है कुछ ज़्यादा
है एक बूंद की तलाश में
मिले तो जीवन ज़िंदा
ना मिले तो वो भी आधा।
कैसा कयामत का है कहर छाया
बेचैनियों और काँटों भरी सहर लाया
दर दर पर ठोकर खा रहा इंसाँ
न तब भी जल को पा रहा इंसाँ
धरती का आँचल सूख गया
सूनी सारी नहरें हुई
हरी फसलें राख हो गई
धूल सारी लहरें हुई
सर सर करते पत्ते सारे
कड़ कड़ करते चटक गए
जो कभी फूल फल गिरते थे
वो सूख कर वहीं लटक गए
घास के मैदानों को ये क्या हुआ
ये क्यूँ रेगिस्तान बन गए
किसकी नज़र लगी इन जंगलों को
ये क्यूँ कब्रिस्तान बन गए
...
उपर वाले से प्रार्थना है के ये कल्पना कभी हक़ीक़त ना बनें ।
झुँजलाया हुआ वो थोड़ा सा
झन्नाया है कुछ ज़्यादा
है एक बूंद की तलाश में
मिले तो जीवन ज़िंदा
ना मिले तो वो भी आधा।
कैसा कयामत का है कहर छाया
बेचैनियों और काँटों भरी सहर लाया
दर दर पर ठोकर खा रहा इंसाँ
न तब भी जल को पा रहा इंसाँ
धरती का आँचल सूख गया
सूनी सारी नहरें हुई
हरी फसलें राख हो गई
धूल सारी लहरें हुई
सर सर करते पत्ते सारे
कड़ कड़ करते चटक गए
जो कभी फूल फल गिरते थे
वो सूख कर वहीं लटक गए
घास के मैदानों को ये क्या हुआ
ये क्यूँ रेगिस्तान बन गए
किसकी नज़र लगी इन जंगलों को
ये क्यूँ कब्रिस्तान बन गए
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