...

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प्रेम का पर्याय तुम
जितना जाना, जितना समझा
उतना ही मैं तेरा होता गया
जितना खोजा, उतना है पाया
तुमसे सीखा किसी का होना ।।

नम 'आँखों' कि नमी चुरा कर
फ़िर से हँसी उनमें भर देना है
एहसास लबों के बोल ना पाए
हर राज़, उर को ग्रहण करना ।।

मर्म ना जान पाया प्रेम का मैं
हाँ, प्रेम प्रतिमूर्ति समकक्ष तेरे
ढूँढता था गली गली प्रेम को मैं
राधव की सिया तुम बन आई ।।

दरमियाँ एहसास सुख दुःख के
जैसे बादलों से बरसी है राहत
'प्रेम' ने लिया शरण मेें जीवन
तुम जीवन मेें बहार बन आई ।।
© कृष्णा'प्रेम'