...

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एक चाँदरात
एक पूरा चाँद था
एक अधूरी आस थी,
उस चाँदरात मेरी
मेरे इश्क़ से मुलाक़ात थी।...

उमड़ घुमड़
फ़िर हल्की सी बरसात थी,
पिघल रही थी ज़मीं
शायद आसमां को प्यास थीं।...

क्या पता मेरे वजूद की मुझसे
ये पहेली सी बात थी,
या मिलके बिछड़ जाने वाली
महज़ मुलाक़ात थी।...

अश्क़ लिए आँखों में
पहली बार जो वो बोला था,
जैसे नज़्म भरी बातों से उसने
दिल का पर्दा खोला था।...

शिकायत के ख़त
नाराज़गी के लिफाफे थे,
मिलते ही उसने कुछ
मेरे साथ बाटें थे।...

हफ़्तों महीनों बाद तुम
मुझसे मिलने आयी हो,
वफ़ा की कसमें ना सही,
थोड़ा सा साथ लायी हो।...

कभी नज़र मिली तो
सलाम कर देती,
चंद लफ़्ज़ों का सही
पैग़ाम कर देती।...

कोई नाराज़गी, शिकवा था
तो बयान कर देती,
न मंज़ूर सफर था
तो रास्ता बदल लेती।...

दर्ज जहन में उसके
सवालों की लंबी कतार थीं,
सब्र कहाँ था उसे
सर पे मोहब्बत सवार थी।...

मेरे जज़्बातों की हक़ीक़त
कैसे बताओं,
सिलसिला पहली नज़र से
अब तक का
ज़बानी सुनाओ तुम्हें।...

इसे शर्म कहो,
अदब का नाम दो,
मजबूरी मेरी
या तुम्हारा इम्तिहाँ कह लो।...

तक़रीर जवाबी
हमने भी सुनाई उसे,
फिर चाँद की रोशनी
दिखाई उसे।...

अब रात भी सो गई थी,
और मुलाक़ात पूरी हो गयी थी।...























© maniemo