...

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विपदा
नादान सी उम्र जब थी
आकाश में उड़ते उड़ाते थे
जब दायरे बढ़ गये
जवां दिल के अहसास जागे

ऐसे बने सबसे हो बेमुरव्वती
मुहब्बत के तमाशे में उलझ सुध-बुध उड़ाके
नयनतीरों से हुए जो घायल
दिल में खुद को बैठें हैं आग लगा के

भुल बैठे जिंदगी की नाव में
परिवार,साथी सहारे की आस लिए संग बैठे हैं
सम्भल के सम्भालने की उम्र आई है तब
लुढ़क रहे हैं लाडले राजपथ पर बेबस होके

ताप से दहकता अंगार कोई दिन ऐसे आए हैं
बल छोड़ बदन में निर्बलता थर्रा रही
उपेक्षा घात के अवसर में सब उलझाएं हैं
विपदा इसी तरह घुमती उलझाती‌ प्रहार दर्द के जगाए है

© सुशील पवार