दरख़्त
जाने उस दरख़्त में भला कौन सी मायूसी थी
जो खुद को तोड़े, सुंसानियत में भी टिकी रहती थी
मिट्टी की खुरदरी ज़मीं में भी मानो, तमाशबीन ज़िन्दगी जिए बैठी थी,
उसकी जड़ों की एहमियत को कौन समझे, जो बुढ़ापे की तसव्वुर सी लगी सहमी सी,
उस अंधेरे की चुभन में सिमटी, अकेली बन उस खुदा के लिए जीती थी,
मार्मिक स्पर्श चित्रण मेरा, औरत की व्यथा ये कहती थी,
तू शाख से गिरी टूटी नहीं है, कुरबत की इनायत ये कहती थी।।
© Pooja Gautam
जो खुद को तोड़े, सुंसानियत में भी टिकी रहती थी
मिट्टी की खुरदरी ज़मीं में भी मानो, तमाशबीन ज़िन्दगी जिए बैठी थी,
उसकी जड़ों की एहमियत को कौन समझे, जो बुढ़ापे की तसव्वुर सी लगी सहमी सी,
उस अंधेरे की चुभन में सिमटी, अकेली बन उस खुदा के लिए जीती थी,
मार्मिक स्पर्श चित्रण मेरा, औरत की व्यथा ये कहती थी,
तू शाख से गिरी टूटी नहीं है, कुरबत की इनायत ये कहती थी।।
© Pooja Gautam