...

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ह्रदयविदारक आत्म-मुग्धता
मन में दर्द का सागर था,
मैंने चरणों में तेरे उड़ेल दिया..,
जब भाव बंधन में बंधकर,
"मैं" कमज़ोर हो गया...
ह्रदय में ऐसी आस का संग देखकर,
मारे शर्म के, "मन" पानी- पानी हो गया,
कैसी विकट माया है, प्रभु आपकी..
क्षण भर भी भूले आपको,तो क्षण भर -भर के हम भटके..
जबकि भटकना भी आपसे ,भटकना भी आपमें.. दूजा और कोई ठौर नहीँ हमारा..
हाँ,पल-पल तेरे आँचल को पाने हम बेहिसाब भटके..
अब तो गले लगा लो, प्रभूजी,हमें
अब तो बस तुझमें ही हैं, सिमटे...
हाँ...
सीमित हैं, हम..अनंत की कामना करते हैं..
पात्र न होने पर,आँखों में आँसू भरते हैं..
हम ही दुश्मन ख़ुद के,दूसरा और कोई नहीं...
नैनों में सुहाने सपने देखती अँखिया हैं, के अब तक चैन से सोयी नहीं..
कैसा चैन,कैसा पात्र, कौन भक्त, कौन नाथ...
चराचर जगत में मेरे प्रभु के जैसा, अपना कोई नहीं..
कोई नहीं...
कर्तव्य, मर्यादा और समर्पण में उलझें लोग, क्या जाने...
वो निर्बल के बल बन जाएं, ऐसे करुणामयी परमपिता जैसे, धनवान कोई नहीं, कोई नहीं...
🌼ऐसी ह्रदयविदारक आत्म-मुग्ध रचना के लिये, आभारप्रभुजी।🙏🌍🐚🇮🇳
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© nikita sain