...

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फिर भी न जाने क्यों
कुछ पन्नो को पलट कर फिर बंद कर देती हूँ
अपनी आदतों की मशाल, यूँ ही बुझने नहीं देती हूँ

इस झूठ फरेब की दुनिया में खुद को सचेत करके रखती हूँ
फिर भी न जाने क्यों किसी फ़रेबी के दरिया में बहती हूँ

कुछ ख्वाबों को मैं यूँ ही ओझल नहीं होने देती हूँ
फिर क्यू उसे ठुकरा कर खुदगर्ज़ बनी फिरती हूँ
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