फिर भी न जाने क्यों
कुछ पन्नो को पलट कर फिर बंद कर देती हूँ
अपनी आदतों की मशाल, यूँ ही बुझने नहीं देती हूँ
इस झूठ फरेब की दुनिया में खुद को सचेत...
अपनी आदतों की मशाल, यूँ ही बुझने नहीं देती हूँ
इस झूठ फरेब की दुनिया में खुद को सचेत...