...

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आग से आह तक
लपटों के एक भयानक मंज़र को देखने
मैं भी दौड़ती वहाँ पहुँच गई,
एक प्यारे अशियाने को चिता बनता देख
मेरे दिल की धड़कने भी सहम गई।
उस लक्ष्मी को देखा जिसके
आँगन से खुशियाँ बहती थीं,
आज उस आँगन को धुआँ होता देख
वो आँसू कैसे रोक सकती थी।
मन की व्यथा तो क्या ही समझ पाती उसकी
पर फ़िर भी रुक ना पाए मेरे कदम,
उसका हाथ पकड़ कर बस यही बोल पाई,
"ये क्या हादसा हो गया एकदम!"

फिर उठकर गई मैं अपने एक क़रीबी के पास
जानने के लिए कि कैसे हो गए ये हालात,
पर क्या पता था कि अगली आग मुझमें ही लगनी है
जब उस क़रीबी के मुँह से सुनी मैंने वो बात।
"ये क्या बनकर आई हो? बाँधो अपने बाल!"
धीरे से उसने शर्मसार होते हुए कहा,
मैं जो हड़बड़ाहट में जैसे तैसे गाँव पहुँची थी
नहीं पता था, ये पहले शब्द होंगें, जो सुनने पड़ेंगे वहाँ।
घर छोड़ जिस जल्दबाज़ी से गई थी
उसी तेज़ी से खुले छोड़े घर को लौट आना था,
पर पता नहीं था, उस जलती तस्वीर के बदले
एक सुलगता मन वापिस ले जाना था।


© bani745