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"माता-पिता"
"माँ"
अम्बर अम्बर बात चली है, एक चाँद मिला है अम्बर पर,
कहते उसका नाम है माँ, जो जा बैठी है दिनकर पर।

सारे नभ मंडल को उसने, घर जैसा कर डाला है,
मोती बनके बिखरे हैं सब चाँद-सितारे आंगन पर।

उसने सींचा है वसुधा की, हरियाली को आँचल से,
माँ गंगा जैसी लगती है आते हर एक सावन पर।

ममता, समता ,दया, धरम, नित नया करम सिखलाती है,
माँ जैसा न गुरु हुआ है गुरुओं के इस उपवन पर।

स्नेह, सनेह, सुघर वाणी और माँ की ऐसी आभा है,
सर्प भी पैर दबाते हैं जितने लिपटे इस चन्दन पर।

"पिता"

टूटी-फूटी उम्मीदों को, सच करते ख़ुद ढह जाना,
कितना मुश्किल है शब्दों में कर्म पिता के कह पाना।

जब-जब आँगन जख़्मी था और दीवारें बेजान थी,
याद पिता का लहू है बनके घर की रग में बह जाना।

जिम्मेदारी की हो चाबुक या दर्द फटी बेवाई का,
नामुमकिन है पिता बिना ये और किसीका सह पाना।

माना माँ वसुधा जैसी है, सागर पिता जो न हों तो,
सोचों क्या मुमकिन होगा फिर इस दुनिया में रह पाना।

माँ के चरणों को छूना ग़र मुक्ति पाने जैसा है,
छूना पैर पिता के मानो स्वर्ग की कोई सतह पाना।

कितना मुश्किल है शब्दों में कर्म पिता के कह पाना।

प्रखर कुशवाहा 'Dear'