...

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सिया राम....
मुग्ध भयीं जनक दुलारी रहीं राम छवि निहार,
रही न सुध जा तन की मन हि मन करैं विचार;
सुमिरत माता गिरिजा को सुन लो अरज हमार,
इह सुकुमार बनै मोरे स्वामी विनती बारम्बार।

सखियां खींचैं चल रे सखी काहे को तू बौरानी,
इह सुकुमार मानुष नही लागे,है कोई पटु प्रानी;
सीता टस से मस न हुईं एक टक रहीं निहार,
कहतीं अब कोई न दूजा बस एहि है मोरे भर्तार।

जो दशा जानकी हुई तेहि हालात प्रभु राम,
देखि छवि वैदेही की अब कुछ नाहि सुहात;
मन बसी बस एक छवि सूझै न कोई दूजो नाम,
अब जीवन तुमसे ही सीते,सांझ होई या प्रभात।
© pagal_pathik