...

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दोस्त जो कि छूट गए।
काश मेरे हाथ में
लग जाती इक जादू की छड़ी,
घुमा कर जिस को यूं मैं
कुछ वर्ष पीछे जाती चली ।

थाम कर उन हाथ को
जो डगमगा कर छूट गए।
अपने इस हाल में
हो जाती मैं डट कर खड़ी।

आज मेरे दोस्त वह
जो हिंदू ,मुस्लिम हो गए।
अपना के एक नया रूप
नफरत की दुनिया में खो गए,
पकड़ के उनके हाथ को
हकीक़त में ले आती मैं,
इस उबड़ खाबड़ दुनिया में
जन्नत की सैर कराती मैं।

याद कर !
किस तरह से पीछे से छुप कर
तू मुझको रंग लगाती थी,
ईद के दिन मैं भी
डब्बे भर भर कर सेवईयां लाती थी।
तू और में जब कभी कभी
थोड़ा ज़्यादा शरारतें कर जाते थे
फिर या तो तेरे पापा या
कभी कभी मेरे अब्बू
हमें उठक बैठक करवाते थे।

ना कभी तू मुझ से ये कहती
क्यों तेरा नाम आईशा है?
और ना ही कभी मैं तुम से
ऐसे सवाल करती थी।
बस मैं तुझ को पसंद करती थी
मैं भी तुझे अच्छी लगती थी।

लेकिन मेरी दोस्त!
कैसे धीरे धीरे हम इतना बदल गए
हर गुजरते दिन के साथ
इक नए रूप में ढल गए।
पहले हम एक दूसरे की जान हुआ करते थे,
और जान बन कर हम ,
देश की शान हुआ करते थे।
पर !
आज तू मुझ को आइशा समझने लगी,
और मै भी तुझ को अंजली कहने लगी

देख हमारे इस चमन में
कुछ बीज ऐसे उग आए हैं
जो अपनी मीठी मीठी खुशबू में
ज़हर छिपा के लाए हैं।
आज हमारी ये फिज़ा
मस्मूम(जहरीली)सी हुई जाती है,
क्यों तू अपने दिल में
नफरत की दीवार बनाती है।

चल उठ पकड़ हाथ मेरा
एकता का दर्स (सबक) सिखाते हैं
इन जहरीले फूलों को भी
अपने चमन का फूल बनाते हैं,
फिर से वहीं सेज सजाते हैं,
अपना पुराना किरदार निभाते हैं,

और अपने इस देश में
फिर से इक घर के हो जाते हैं।

Fayza.

© fayza kamal