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एक असम्भव प्रेम गाथा अनन्त की मूलवान भेंट श्री कृष्ण द्वारा पुरस्कार।।
मांग था साथ तुमने हाथ दिया,
जब डूब रही थी श्रृष्टि के इस मृत्यु के भवर,
तब तुमने संजीवनी द्वारा प्राण दिए,
हां मैं सुकरगुजार हूं तुमहारी,
कि कृष्णानंद जैसे दोगले यक्ति को फिर का अन्य लैसवी से मत मिलाना,
और जीवन बीता दिया मैने अपना दुखो के अभाव में,
मैं जानती हूं कि तुम हो तो तुम्हारी इस लैसवी वैशया होते तुमने अपनी दिवानी के स्वारूप में स्वीकार किया और यह मेरे सबसे बड़ा सुख है।।
हजार लांछन लगाने वाले कुछ भी नहीं बिगाड़ पाए तुमहारी दिवानी का।।
क्या हम तुम पर अत्यधिक परसनन है ।।
श्री हरि विष्णु -माग क्या मागती ऐ दिवानी।।
मैं इस जगत कर्म कुंभ मेले मुक्त हो ना चहाती हूं और फिर आपसे मेरी एक ही इच्छा है क्या भीकछा स्वारूप देंगे।।
श्री हरि -बहुत ज्यादा विचार करने के बाद भोले हे प्रिय ये तुम क्या क्या माग रहीं हों ये श्रृष्टि एवं नीयमो के आधीन है।।
कन्या -आप ने मुझे वचन दिया है।।
श्रीकृष्ण विपधा मे फस कर बोले -ठीक है परन्तु हमारी परिछा में तुम्हें सफल होना होगा।।
कहो मंज़ूर है प्रिय।।
कन्या प्रिय दीवानी -बोली मैं सजय हूं।।-परमेशवर।।
परिछा भवन चुनाव रणनीति संचालित द्वारा आयोजित -श्री वासुदेव पुत्र श्रीकृष्ण।।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस।।
#परिछा
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