...

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मुतंजिर
आज शमा से फैला है अंधेरा,बगर में मचा निभृर्त का शोर
वो कल जो आनन करते ठठ्ठा,वो सावन से निकार्य हुए मोर
नापिडा जो कल था,उसपर मौन बंदे विराजा हुआ है जंजीर
में वो ही हूं,बस उस काल का नहीं,पर वक्त का हूं मुंतजिर

शुक्र भी है,सवाल भी,की जो कल देखा वो क्यों आज नहीं
जहां खग का था दबदबा,वहा द्विज चुप हो और बाज सही
नेत्रहीन हम है या पूरी दुनिया,की पागल हम, दुनिया शातिर
दृश्यसहित है, कर सकते नहीं,क्योंकि वक्त का हूं मुंतजिर

सैयम से दबी आवाज़,अध सांसे,संतोष से तो गेहरा रिश्ता
जो कल लगता था मुठ्ठी में,ओझल हुआ है बनकर फरिश्ता
बुरा हुआ तो मतलब से,सच की कोशिश काम के खातिर?
में चुप जरूर हो,हालातो से,क्योंकि अब वक्त का हूं मुंतजिर

कहीं चढ़ना है हिमालय,तो कहीं कामना है नोट कई करोड़
में चाहता हूं वापस लौटने की,जब जहां सब दिया था छोड़
मोल तब समझ आएगी,कोसने वाले भी बुलाएंगे आखिर
होगा नहीं,इसलिए अब करलो,क्योंकि वक्त का हूं मुंतजिर
ADITYA PANDEY©