...

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“my imagination”
पता नही क्यूं दिल ये चाहे
कुछ तो ऐसा लिखती जाऊं
जिससे हाल मैं दिल का अपने
लफ़्ज़ों में अपने दोहराऊं
ऐसा कुछ लिक्खूं काग़ज़ पर
जिसको पढ़ने वाला जानां
दिल से मेरे वाकिफ़ न हो
अनजाने ही तरस वो खाये
जाने क्यूं ऐसा लिक्खा है
सोचों में फ़िर वो खो जाये
पहरों तक सोचे वो मुझको
सोच सोच के फ़िर थक जाये
पास मेरे फ़िर आये पूछे
ये जो कुछ भी तुम लिखती हो
लिखती हो क्यूं वजह बताओ
वजह बताकर दर्दों को तुम
यहीं कहीं पर रक्खो भूलो
भूल-भालकर फ़िर मुस्काओ
झुका हुआ सर उठाऊं मैं फ़िर
ग़ौर से देखूं सामने उसको
थोड़ी देर तो देखती जाऊं
फ़िर धीरे से सर को झटकूं
लब ही लब में फ़िर मुस्काउं
कहूं मैं उससे क्या समझे हो
समझे हो जो वो समझाओ
नासमझी से देख के मुझको
शर्मिन्दा फ़िर वो हो जाये...
© Arshi zaib