...

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रातों के सपने
इस नींद के पर्दे हटाकर, नज़रों के पहरे बचाकर.
तेरी याद आए चुपके से, मेरी नींद से आँखें चुराकर.

सपनों में इसके चांदनी, जो रात की धूप में नहाकर,
निकली है चाँद से, मिलेगी फलक़ पे सूरज से जाकर.

ख़ामोश इस आलम को क्यों ना हम तुम सजाकर,
निकलें कहीं उस पार, ख़ुद को इस नदी में बहाकर.

ये रात बीती, चलो फिर से हमें दुनियादार बनाकर,
लौटेंगे इन लहरों में फिर, सपनों में वापिस जाकर.
© अंकित प्रियदर्शी 'ज़र्फ़'
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