...

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कुछ मेरे अनकहे दर्द
जिस उम्र को जीना था उसी में मर रहा हूँ,
मौत घाट के मैं अब गाहे-गाहे उतर रहा हूँ।

सालों से लिये एक ही ग़म को फिर रहा हूँ,
मैं ज़िंदगी से लड़ रहा हूँ उसी में मर रहा हूँ।

टुकड़े दिलके समेटने न आया वो न ग़ैर ही,
रोज़ ही बिखर रहा और रोज़ ही मर रहा हूँ।

आवाज़ किसी से मुझे पर न दी गई कभी,
हरपल खामोशियाँ सुन रहा व मर रहा हूँ।

उसने तो कब का छोड़ दिया मुझे अकेला,
मैं ही उसकी याद में मर रहा हूँ मर रहा हूँ।

दर्द की गहराई मेरी


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