...

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मेरे मन मंदिर कि पवित्र मुरत हो तुम ....
तुम्हारी मुरत मुझे ,
ईश्वर से कम नही लगती ...
क्योंकि है ,
तुम्हारे पास निस्वार्थ .....
प्रेम करने की अभिलाषा ,
वो प्रतिक्षा का प्रसाद .....
जिस के धीरज के तप में ,
तुम स्वाह कर देते हो ....
मेरे आक्रोश को , और
करते हो प्रेरित
तुम्हारे प्रेम में ....
सदा के लिए ,
खुद को समर्पित करने को ....
वो प्रेम के ,
अखण्ड दीपक को ....
हृदय की गहराई में ,
प्रज्जवलित करने को ....
जिसकी रोशनी में ,
जीवित रख सकूँ .....
अपने अमर प्रेम को .....!!