...

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मैं एक बार फिर चुप खड़ी रही!
उस विचित्र से चित्र को निहारते,
मैं एक गहरी सोच में पड़ी रही।

क्यों मैं उन जंजीरों और दीवारों के बीच यूं चुप खड़ी रही ?

उस अशांत निस्तब्धता में मेरी आंखें नीचे गड़ी रही ।

मैं यूंही चुप खड़ी रही .....

हिम्मत न हो सकी कि उस अंगार ज्वाल को अपने दृग दिखाऊं!
क्या थी मैं विवश या बाध्य ये कैसे बतलाऊं?

मैं बस चुप खड़ी रही ......

उनकी ग्रीवा का कंपन था या थी मेरी लाचारी वजह , मैं तो बस अपनी आसुओं को रोकने में अड़ी रही।

मेरे नाज़ुक पंखों को ' तुम लड़की हो ' कह कर तोड़ दिया ,
और मेरी नज़र बस उन बिखरे पंखों पर गड़ी रही ।

मैं यूंही चुप खड़ी रही ......

यूं नहीं की मेरे पास तर्क न थे ,
ये भी नहीं की मैं गलत थी , शायद गलत समझी गई थी ;
हजारों बातें , लांखों प्रश्न मेरे पास भी थे , फिर भी मैं एक बार फिर बस चुप ही खड़ी रही ।

कहते हैं जो शब्दों में बयां न हो सके वो आंखें बयां करती हैं ,
प्रत्युत मेरी आंखें भी शुष्क पड़ी रही ।


मैं यूंही बस चुप चाप खड़ी रही ••••


© सदेव